कविता!
यह शब्द क्या अभिव्यक्त करता है? इस
शब्द को क्या अभिव्यक्त करना चाहिये?
कायिक
रूप में व्यतीत जिन कवियों की कवितायें कविताप्रेमियों को याद रहती हैं, उन्होंने अपनी कविताओं में किस विषय पर क्या-क्या
लिखा? जहां-जहां भी जो कवितायें
पढ़ीं या पढ़ता हूं तो तात्कालिक पठनानुभव से कविता के बारे में आत्मज्ञान जाग्रत हुआ।
इस ज्ञान के प्रकाश में स्पष्ट हुआ कि कविता शब्द उपयोगिता का पर्याय है। कविता का
संधिविच्छेद कवि़ता है। अर्थात कवि के रूप में मनुष्य के भावों का ता। ता अर्थात् उपयोग।
ता अर्थात् मनुष्य काया के जीवन और उसकी मृत्यु के बीच में उत्पन्न होनेवाला प्रेम
व अनुराग। प्रकृति से प्रेम। प्रकृति के असंख्य जीवों, क्रमों,
उपक्रमों, यमों,
नियमों, ऋतुओं,
रंगों, सुगंधों से अनुराग। इन परिस्थितियों में
प्लावित मनुष्यों के मध्य उत्पन्न होनेवाला प्रेम। कविता के ता से आशय है व्यक्ति की
सकारात्मक मनोदशा। ता से तात्पर्य सुर,
तान, नाद,
गीत, संगीत। ता का अर्थ है सुर, तान,
नाद, गीत व संगीत में उपजी प्रसन्नता, संजीविता,
प्रफुल्लता
एवं जीवन से संबंधित उपादेयता। ता माने उमंग,
तरंग, उत्साह,
समुत्साह, मधुभाव,
मधुरतम
भावना। ता प्रकृति के अदृश्य नाद, गीत-संगीत, वाद-संवाद, भावों-भावनाओं को परिभाषित करता है। ता ईश्वर
भी है। ता जीवन है। ता मृत्यु है। परन्तु उक्त सभी आशय, तात्पर्य,
अर्थ, माने ता में प्राकृतिक रूप में होते हैं।
ता में कुछ भी कृत्रिमता, भौतिकता, आधुनिकता और कुंठ-कुंठा ये युक्त होकर प्रवेश
नहीं कर सकता। यदि ये सभी ता से बलात जुड़ने का प्रयास करते हैं तो ता अर्थात कविता
अपठनीय, अविचारणीय और उपेक्षित
हो जाती है। ता का एक शब्द में जो श्रेष्ठ वर्णन हो सकता है, वह है प्रकृति। प्रकृति के विपरीत जगत जिस
बिंदु से चलना आरंभ हुआ था, तब
से लेकर आज तक कविता का शनैः-शनैः पतन होता रहा। वह जिसके लिए सृजित होती रही, उसी मानव अर्थात् पाठक से दूर होती रही।
पुराने कवियों ने कविता के लिये जो प्रयास
किये, वे प्राकृतिक प्रयास थे।
वे कविता के ता का प्रकृतिप्रदत्त पर्याय थे। इसीलिये उनके द्वारा सृजित कवितायें आज
तक संवेदनशील पाठकों को याद रहती हैं। उनकी कविताओं के प्रति आज के संवेदनशील मनुष्य
भी उत्प्रेरित होते हैं। परन्तु ऐसे कवियों के प्राकृतिक-स्वाभाविक सृजन को मूल्यांकन
एवं समालोचना के अनेक वर्गों में विभाजित करनेवाले तथाकथित मूल्यांकनकर्ताओं व समालोचकों
ने कविता और कविता के पाठकों के बीच में एक विभाजक दीवाल खड़ी कर दी। ये लोग यह नहीं
समझ पाये कि कवि का प्राकृतिक-स्वाभाविक सृजन स्वयं में जैसा भी था, उपयोगी और पर्याप्त था। समाज की साहित्यिक
उन्नति की आड़ में, भला
उसे वर्गों में विभाजित करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ गयी थी। अवश्य ही इसका कविता, साहित्य और समाज के हित में कोयी उपयोग न
था। कविता का काल एवं वाद आधारित विभाजन संभवतः शिक्षा अकादमियों की स्थापना करने, अकादमियों से जुड़े पूंजीपतियों के पूंजीगत
हितों को साधने तथा अकादमियों से संबद्ध तथाकथित विद्वानों के विद्व-एकाधिकारों व उनके
स्वार्थ बचाने के लिये हुआ।
हालांकि कवि कुछ भी लिखे, वह स्वयं का मूल्यांकन अथवा समालोचना नहीं
करता। परन्तु आदिकाल के बाद जो भी विभिन्न काल साहित्यिक गणनाओं में आये, उनमें कवियों-लेखकों के लिखे का मूल्यांकन
किया जाने लगा, लिखे की समालोचना की जाने
लगी। परन्तु मूल्यांकन हमेशा समुचित नहीं रहा। समालोचना पद्य अर्थात् कविता के उद्धार
हेतु नहीं हुयी। रीति, भक्ति, आदि......जितने भी काल साहित्यिक सृजन की
गणना में लगे रहे और छाया, रहस्य, आदि......जितने भी वाद लेखन के मूल्यांकन
को लेकर तैनात रहे, क्या
लिखनेवाले के लिये उनका कोयी महत्व हो सकता है?
कविता
रचनेवाले ने दिव्य संवेदनाओं से भरकर कुछ शब्द रच दिये। इन शब्दों को किस काल या वाद
के वर्ग में रखना है, भला
इस कर्म की क्या आवश्यकता थी। ऐसा विभाजन क्यों किया गया? इसका उद्देश्य क्या था? क्या यह इतना आवश्यक था? मैं मानता हूं कि इसकी कोयी आवश्यकता नहीं
थी और अब भी नहीं होनी चाहिये। अन्यथा सदियों से उभरते इसके दुष्परिणामों से वर्तमान
में और भविष्य में भी मुक्ति नहीं मिल सकती।
कविता अपनी ता की परिभाषा एवं प्राकृतिक
पर्यायों से इसलिये वंचित होती गयी,
क्योंकि
यह शासकों और पूंजीपतियों के हाथों में आ गयी। ऐसा शताब्दियों से होता आ रहा है। कविता
की आड़ में मनुष्य के मन-मस्तिष्क की कुंठाओं,
विकारों, व्यभिचारों, भ्रमों,
भ्रांतियों
एवं दुर्गुणों को बाहर निकालने का सर्वाधिक प्रश्रय यूरोपीय देशों में मिला। कुछ ढायी-तीन
सौ वर्षों से वामपंथ के विकार का तीव्र उभार हुआ। इस पंथ के अंधविश्वासी लोग, जो शब्दों-अक्षरों को लिखना-पढ़ना जान गये, उन्होंने कविता को इसके प्राकृतिक पर्यायों
से पूरी तरह अलग कर दिया। इनके लिये कविता पूंजीपतियों, गरीबी,
भुखमरी, आदि का विरोध करने का अस्त्र बन गयी। वास्तव
में पूंजीपति, गरीबी, भूख का इनका विरोध खोखला विरोध था। गरीब
का भला उसकी गरीबी का वर्णन करके नहीं,
अपितु
अपनी जेब से धन देकर उसे कुछ खरीदने लायक बनाने से होता। भूखे का उद्धार कविता में
अनावश्यक शब्द उकेर कर नहीं, बल्कि
भूखे को भोजन कराकर होता। पूंजीपतियों का पराभव उनके विरोध में कविता करके नहीं, उनकी सारी समाजिक-शासकीय व्यवस्था की व्यावहारिक
उपेक्षा करके होता। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। गरीबी,
भूख
और पूंजीपतियों के विरोध का तो व्यर्थाभ्यास होता रहा, पर इनके कारण, जनसंख्या वृद्धि, के बारे में कोयी बात नहीं उठी। ये नहीं
देखा गया और अब भी नहीं देखा जा रहा कि 1947 में 30 करोड़ की जनसंख्या वाला देश
2020 तक 1 अरब 50 करोड़ जनसंख्या का देश हो चुका है।
यूरोप,
चीन, सोवियत संघ यानी आज के रूस और इनके दुष्प्रभावों
से ग्रस्त अनेक देशों से होते हुये वामपंथ के उक्त विकार भारत में भी कविता में उभरने
लगे। जब से कविता में वामपंथियों की कुंठायें समाने लगीं, तब ही से कविता ही नहीं, हर प्रकार का साहित्य अधिसंख्य पाठकों द्वारा
तिरोहित होने लगा। धीरे-धीरे साहित्य मरने लगा। कविता मरने लगी। साहित्य और कविता में
वामपंथी कुंठाओं के विष बोये जाने लगे। इनके कारण कविता अपनी प्राकृतिक-स्वाभाविक लय, ताल,
छंद, आशय,
सौन्दर्य, शब्दों और साहित्य से अलग हो गयी। ऐसे लोगों
द्वारा कविता की आड़ में लिखे गये शब्द परस्पर इतने उलझे हुये होते हैं कि समझ ही नहीं
आते। लिखनेवाला क्या लिखना-कहना चाह रहा है,
पता
ही नहीं चलता।
क्या पहले अपने प्रकृत-स्वरूप में कविता कवियों के भावार्थ को समझाने में कठिन जान पड़ती थी? नहीं, किंचित नहीं जान पड़ती थी। कविता को इसके ता के पर्यायों, प्रकृति एवं प्रवृत्ति के साथ रचनेवाले कविगणों के शब्द-शब्द और उनके भावार्थ इतने शक्तिशाली होते थे कि रोगी पाठक को भी स्वस्थ कर देते थे। पहले की कविताओं का विस्तृत मूल्यांकन भी इसीलिये साकार हो पाता था, क्योंकि कविता के भावार्थ स्पष्ट और अनेकायामी होते थे। कुछ ही शब्दों में रचित ऐसी कविताओं की पुस्तकाकार समालोचनायें भी इसलिये संभव हो जाती थीं, क्योंकि कविता संदर्भित विषय के साधारण-असाधारण अनुभवों के साथ उसके गूढ़ानुभव को भी पाठकों के लिये सहज बोधी बनाती थी।
बहुत ही सुंदर सर बहुत अच्छा लगा पढ़ कर।
ReplyDeleteसादर