Tuesday, January 5, 2021

श्मशान में मृत्यु-ताण्डव

अंत्येष्टि एक की थी

उसमें, मृत्यु निर्दयी

चौबीस को खा गयी।

अपना ताण्डवी,

विनाशी विप्लवी

नव रूप दिखला गयी।।

 

बनकर मृत्यु, कर रही

प्रकृति, मनुष्यों को सचेत।

घटाने जनसंख्या का

बारंबार दे रही संकेत।।

 

अधि जनसंख्या के मध्य

कुछ भी हो नहीं सकता,

उपयोगी उचित समुचित।

चाहे कोयी कैसा आ जाय

नहीं नियंत्रित कर सकता,

पगानेक भीड़ के अनुचित।।

7 comments:

  1. हृदय विदारक ताण्डव का मर्मस्पर्शी संकेतन ।

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  2. मन को छूती बहुत ही सुंदर सराहनीय अभिव्यक्ति आदरणीय सर।

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  3. संकेत देती ... से को समय पे समझने की सलाह देती रचना ...
    आप रचनाओं में भी हैं ... आज पता चला ... बहुत शुभकामनायें ... नव वर्ष मंगलमय हो ...

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  4. हृदय द्रवित करती सराहनीय रचना।
    सादर।

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  5. मन को झकझोरते हृदय विदारक दृश्य को कौन भूल सकता है..समसामयिक एवं जनसंख्या पर चोट करती रचना..

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  6. बढ़ती जनसंख्या पर सटीक कविता।

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  7. बारम्बार ऐसी लापरवाहियां होती रही हैं.लेकिन कुछ नहीं बदलता है.

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